Wednesday, April 28, 2010

मन चंचल

अविरल कहिंसे जलधारा
बनके नदी है बेहेती
मन चंचल न सुख पावे
हरपल मो से है केहती
कभी बावंरिसी भंवर मे
गोता खूब लगाए
उभरके फिर किनारा
पटवार भी न पहुँचाए
मनका सागर है गेहरा
गेहराई समझ न आवे
जो समझूँ मैं मनको
मन फिर भी न समझे